10 मोहर्रम शहादत दिवस,,,सजदे में सर कटाकर सत्य को अमर कर गए हुसैन, अधर्म के आगे नही झुके नबी के नवासे, देखे इतिहास के।पन्नो को रूबरू करती खास खबर
शाजापुर:- सैकड़ों वर्ष बाद भी फ़ुरात नदी के किनारे क़र्बला मैदान में हुई जंग दुनिया को अमन और शांति का पैग़ाम दे रही है। 72 हुसैनी और 80 हज़ार यज़ीदी लश्कर के बीच हुई लड़ाई का अंजाम तो संख्या से ही पता चलता है, मगर जनाब ए मोहम्मद सल्लल्लाहो अलैही व सल्लम के वारिसों ने अधर्म के आगे झुकने के बजाए डटकर मुक़ाबला किया और इस्लाम धर्म के स्थापित सिद्धान्तों के लिए सजदे में सर कटाकर अमर हो गए।
10 मोहर्रम 61 हिजरी यानी 10 अक्टूम्बर सन् 680 को हज़रत हुसैन रज़ि. को यज़ीद की सेना ने उस वक़्त शहीद कर दिया, जब वे नमाज़ के दौरान सजदे में सर झुकाए हुए थे। पैग़ाम ए इंसानियत को नकारते हुए यज़ीद ने इस जंग में 72 लोगों को बेरहमी से क़त्ल किया था, दुश्मनों ने छह महीने के बच्चे अली असगर के गले पर तीर मारा, 13 साल के हज़रत क़ासिम को ज़िन्दा घोड़ों की टापों से रौंद डाला और 7 साल 8 महीने के औन मोहम्मद के सिर पर तलवार से वार कर शहीद कर दिया। यज़ीद ने नबी के घराने की औरतों पर भी बेइंतहा ज़ुल्म किए। उन्हें कैद में रखा, जहां हज़रत हुसैन की मासूम बच्ची सकीना की कैदखाने में ही मौत हो गई। हज़रत इमाम हुसैन के छोटे बेटे जैनुल आबेदीन 10 मोहर्रम को बीमार होने से जंग में शामिल नही होने से ज़िंदा बच गए थे।
*यज़ीद के आगे नही झुका नबी का घराना*
अंजुमन कमेटी के सदर हाजी नईम कुरैशी ने बताया कि छल-कपट, झूठ, मक्कारी, जुआ, शराब, जैसी चीजें इस्लाम में हराम हैं। हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहो अलैही व सल्लम ने इन्हीं निर्देशों का पालन किया और इन्हीं इस्लामिक सिद्घान्तों पर अमल करने की हिदायत सभी मुसलमानों और अपने ख़ानदान को भी दी। मदीना से कुछ दूर ‘शाम’ में मुआविया नामक शासक का दौर था। मुआविया की मृत्यु के बाद यज़ीद चाहता था कि उसके गद्दी पर बैठने की पुष्टि इमाम हुसैन करें, क्योंकि वह मोहम्मद सल्लल्लाहो अलैही व सल्लम के नवासे हैं और उनका वहां के लोगों पर अच्छा प्रभाव है। मगर यज़ीद जैसे अधर्मी शख्स को इस्लामी शासक मानने से नबी के घराने ने साफ़ इंकार कर दिया। यज़ीद के लिए इस्लामी मूल्यों की कोई क़ीमत नहीं थी। इसके बाद हज़रत हुसैन ने फैसला लिया कि अब वह अपने नाना हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहो अलैही व सल्लम का शहर मदीना छोड़ देंगे, ताकि वहां अमन क़ायम रहे। फिर भी जंग टाली ना जा सकी और इस्लाम धर्म की तारीख़ भी इस युद्ध के उल्लेख के बगैर अधूरी है।
*दरिया पर यज़ीदी पहरा पानी को तरस गए नबी के नवासे*
इस्लामी नए साल के पहले माह मोहर्रम में पूरी दुनिया में हर फ़िरक़े के मुस्लिम विशेष इबादत करते हैं और भोजन, पानी का दान कर रोज़े भी रखते हैं। हज़रत हुसैन और उनके परिजनों, साथियों का बेरहमी से क़त्ल करने के पूर्व यज़ीद की सेना ने बहुत यातनाएं पहुंचाई थी, तपते रेगिस्तान में पानी की एक बूंद भी इस्लाम धर्म के पैग़म्बर के नवासे को नसीब नही हुई थी। दरिया पर यज़ीदी लश्कर का कड़ा पहरा था, जो पानी लेने गया उसे तीरों से छलनी कर दिया गया।
*मोहर्रम धर्म के आदर का मज़बूत उदाहरण*
अंजुमन कमेटी के सदर हाजी नईम कुरैशी ने बताया कि भारत मे मोहर्रम के अनूठे रंग हैं, यहां मातम को भी हर्ष और उल्लास के साथ मनाया जाता है। मोहर्रम को जिस शिद्दत से मुसलमान मानते हैं, हिंदू भी उतनी ही आस्था रखते हैं। चौकी स्नान से लेकर दस मोहर्रम को प्रतीकात्मक कर्बला स्थल तक हिन्दू भाईचारे और सद् भाव के साथ पूरी आस्था में सराबोर होकर मोहर्रम के प्रतीकों को कांधा देते हैं, जो देश मे धर्मों के आदर के साथ एकता का मज़बूत संदेश और उदाहरण भी है। यहां अलग-अलग धर्मों को मानने वालों की कर्बला में हुई शहादत के प्रतीकों पर बड़ी आस्था देखने को मिलती है। तज़ियों के साथ दुल-दुल बुर्राक के जुलूस में सम्मलित होकर लोग आस्था से मन्नते मांगते हैं।
*भारत में तैमूर काल से ताज़ियादारी की परम्परा*
अंजुमन कमेटी के सदर हाजी नईम कुरैशी ने बताया कि मोहर्रम इस्लामी हिजरी सन् का पहला महीना है। रहा सवाल भारत में ताज़ियादारी का तो यह एक शुद्ध भारतीय परंपरा है, जिसका इस्लाम से कोई संबंध नहीं है। इसकी शुरुआत बादशाह तैमूर लंग ने की थी। पहली बार 801 हिजरी में तैमूर लंग के महल परिसर में ताज़िया रखा गया था। 19 फरवरी 1405 ईसवी को कजाकिस्तान में तैमूर की मृत्यु के बाद भी ताज़िये निकालने की परंपरा जारी रही। तैमूर लंग शीआ संप्रदाय से था और मोहर्रम माह में हर साल इराक़ ज़रूर जाता था, लेकिन बीमारी की वजह से एक साल नहीं जा सका। वह दिल का मरीज़ था, इसलिए हकीमों, वैद्यों ने उसे सफ़र के लिए मना किया था।
बादशाह सलामत को खुश करने के लिए दरबारियों ने ऐसा करना चाहा, जिससे तैमूर ख़ुश हो जाए। उस ज़माने के कलाकारों को इकट्ठा कर उन्हें इराक़ के कर्बला में बने इमाम हुसैन के रोज़े की प्रतिकृति बनाने का आदेश दिया गया। कुछ कलाकारों ने बांस की किमचियों की मदद से रोज़े का ढांचा तैयार किया। इसे तरह-तरह के फूलों से सजाया गया और इसी को ताज़िया नाम दिया। इस ताज़िए को पहली बार 801 हिजरी में तैमूर लंग के महल परिसर में रखा गया था।
तैमूर के ताज़िए की शोहरत पूरे देश में फैल गई। देशभर से राजे-रजवाड़े और श्रद्धालु जनता इन ताज़ियों की ज़ियारत के लिए पहुंचने लगे। तैमूर लंग को ख़ुश करने के लिए देश की अन्य रियासतों में भी इस परंपरा की सख्ती के साथ शुरुआत हो गई। ख़ासतौर पर दिल्ली के आसपास के जो शीआ संप्रदाय के नवाब थे, उन्होंने तुरंत इस परंपरा पर अमल शुरू कर दिया। तब से लेकर आज तक इस परंपरा को भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश और बर्मा (म्यांमार) में मनाया जा रहा है। जबकि खुद तैमूर लंग के देश उज्बेकिस्तान या कजाकिस्तान के साथ शीआ बाहुल्य देश ईरान में ताजियों की परंपरा का कोई उल्लेख नही मिलता है।
*क़ुरआन और हदीस में मोहर्रम का महत्व*
अंजुमन कमेटी के सदर हाजी नईम कुरैशी के मुताबिक़ क़ुरआन के पारा नम्बर 10 में सूरह तोबा की आयत नम्बर 36 के मुताबिक़ इस्लाम के बारह माह में मोहर्रम का बड़ा महत्व है। इस पवित्र माह में हज़रत आदम अलेहि सलाम दुनिया में आये, हज़रत नूह अलेहि सलाम की कश्ती को दरिया के तूफ़ान में किनारा मिला, हज़रत मूसा अलेहि सलाम और उनकी क़ौम को फ़िरऔन के लश्कर से निजात मिली और फ़िरऔन दरिया ए नील में समा गया।
*गुनाहों से निजात देता है आशूरा का रोज़ा*
हदीस मिशकात शरीफ़ के मुताबिक़ पैग़म्बर हज़रत मोहम्मद सल्ल. ने पैग़ाम दिया कि गुनाहों से निजात के लिए 10 मोहर्रम यौमे आशूरा पर रोज़ा रखना चाहिए। हदीस तिरमिज़ी शरीफ़ के मुताबिक़ रमज़ान के रोज़ों के बाद मोहर्रम की दस तारीख़ का रोज़ा बड़ी फ़ज़ीलत रखता है।