भोपाल। जातीय, क्षेत्रीय और सामाजिक संतुलन सियासत की मजबूरी कैसे बन चुके हैं, इसे मप्र सरकार के मंत्री विजय शाह के प्रकरण से समझा जा सकता है। सेना के पराक्रम पर विवादित टिप्पणी करने के बाद भी भाजपा उन पर कार्रवाई करने में दो कदम आगे चार कदम पीछे की स्थिति में है।
मध्य प्रदेश हाई कोर्ट के आदेश की आड़ में मोहन सरकार इस मामले में अपना बचाव कर रही है और अपनी तरफ से कार्रवाई का श्रेय भी ले रही है। यह स्थिति पार्टी में आदिवासी चेहरों की कमी के चलते बन गई है।
आदिवासी चेहरों का अभाव
प्रदेश की राजनीति में आदिवासी चेहरों का अभाव नई बात नहीं है। भाजपा और कांग्रेस दोनों इससे जूझ रही है। ऐसे में किसी भी मामले को लेकर आदिवासी नेताओं पर सीधी कार्रवाई से दोनों पार्टियों अब तक बचती रही हैं। विधानसभा से लेकर लोकसभा और स्थानीय निकाय के चुनावों में भी आदिवासी वर्ग ही है, जिसके रुख को लेकर दोनों पार्टियों में बेचैनी परिणाम आने तक बनी रहती है।
भाजपा में पहले से अभाव
आदिवासी वर्ग को अपने पाले में करने के लिए भाजपा सरकार ने विभिन्न योजनाएं शुरू की हैं, वहीं कांग्रेस अपनी पुरानी सरकार के कामों को गिनाने में कभी पीछे नहीं रहती। भाजपा में आदिवासी नेतृत्व का पहले से ही अभाव रहा है। छत्तीसगढ़ के अलग होने के बाद नंद कुमार साय जैसे चेहरे भी नहीं बचे। यही वजह है कि भाजपा दिलीप सिंह भूरिया को कांग्रेस से निकाल कर अपने पाले में लाई थी।
भूरिया को भाजपा के टिकट पर लोकसभा का चुनाव भी लड़ाया, लेकिन उनके निधन के बाद से फिर बड़े आदिवासी चेहरे की कमी भाजपा में खलती रही है। अभी भी उनकी बेटी निर्मला भूरिया भाजपा सरकार में कैबिनेट मंत्री हैं। महाकोशल में जरूर फग्गन सिंह कुलस्ते के अलावा ज्ञान सिंह और ओमप्रकाश धुर्वे जैसे कई चेहरे भाजपा में हैं। फिर भी पार्टी ने कांग्रेस के बिसाहू लाल सिंह को पिछली शिवराज सरकार में मंत्री बनाया था।
बिसाहू कोल आदिवासी समाज से आते हैं। मालवांचल में रंजना बघेल में भी काफी संभावनाएं थीं। 1990 में सुंदर लाल पटवा की भाजपा सरकार में रंजना बघेल को संसदीय सचिव बनाया गया था। बाद में उन्हें दो बार मंत्री बनाया गया, लेकिन पिछले कुछ वर्षों से वह हाशिए पर हैं। छिंदवाड़ा में पार्टी ने कांग्रेस के कमलेश शाह को लाकर विधानसभा का चुनाव जिताया।
निमाड़ के बाहर कोई पकड़ नहीं
कमलेश को भाजपा में लाने की वजह भी छिंदवाड़ा, सिवनी और बालाघाट जैसे आदिवासी बहुल जिलों में आदिवासी चेहरे की कमी रही है। अब माना जा रहा है कि कमलेश शाह को मंत्री भी बनाया जा सकता है। इसकी वजह ये है कि तमाम बचाव के बाद भी विजय शाह का भविष्य अब सुप्रीम कोर्ट के हाथों में है। लंबे समय से आदिवासी चेहरे के नाम पर कैबिनेट में विजय शाह मंत्री जरूर हैं, लेकिन उनकी निमाड़ के बाहर कोई पकड़ नहीं है।
राजघराने से होने के कारण आदिवासियों के बीच उनका उतना प्रभाव नहीं है। पहले भी आदिवासी वर्ग से अंतर सिंह आर्य, प्रेम सिंह पटेल हों या मीना सिंह मंत्री रहे, लेकिन इनका प्रभाव भी विधानसभा क्षेत्र के बाहर नहीं रहा। भाजपा ने ओमप्रकाश धुर्वे को राष्ट्रीय पदाधिकारी बनाया, लेकिन वह भी प्रदेश में पहचान नहीं बना सके।
भाजपा के प्रदेशाध्यक्ष विष्णु दत्त शर्मा ने पीढ़ी परिवर्तन के नाम पर जिन आदिवासी चेहरों को आगे बढ़ाया, वे भी कोई करिश्मा नहीं दिखा पाए। पार्टी के अनुसूचित जनजाति मोर्चा के प्रदेशाध्यक्ष रहे गजेंद्र सिंह पटेल को भी आगे बढ़ाया गया, पर वह दो लोकसभा चुनाव जीतने के बाद भी सक्रिय नहीं हैं।